'मैं और मेरी तनहाई'

उन सूनी सड़कों के परछाइ में,
किसी गली के आखरी नुक्कड़ पे,
उन अंधेरी काली रास्तों में,
सफर करते थे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

लोगों के शोर शराबों के बीच,
दुनिया के झूमती फितरतों के किनारे,
अनजान सड़कों के चक्कर लगाते हुए,
सफर करते थे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

उभरती भारत के नए सपने लिए,
बदलती सवेरे के इंतजार में,
रोज़ हजारों ठोकर खाते हुए,
सफर करते थे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

कल के लिए ख्वाब बुने,
मेहेनत से ना खथराते हुए,
अंधेरे में उम्मीद की रोशनी ढूंढते,
सफर करते थे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

इतिहास को गवाह रखते हुए,
गांधी और बोस, दोनों को चुनते हुए,
समाज में क्रांति की उम्मेद लिए,
सफर करते थे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

इन सपनों को चीरती एक बिजली खड़की,
बिखरती उम्मीद वक़्त ना पूछती,
कामोशियों को हर दिन सेहेते,
सफर करने लगे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

आशा और उम्मीद ढूँढ़ते हुए,
बिखरी सपनों के हिस्सों को जोड़ते हुए,
नए सपने देखने की हिम्मत करते,
सफर करने लगे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

जीत की शहनाई की गूंज के तालाश में,
हौसला और हिम्मत की बैसाखियों के सहारे,
बदलाव के आस में पलके बिछाए,
आज भी सफर करते है दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

समंदर किनारे, अक्सर ये सोचते हुए,
डूबती सूरज के बदलते रंगों में,
रंग बिरंगी नए सपने बुनते हुए,
हमेशा सफर करते रहेंगे दो मुसाफिर,
मैं और मेरी तनहाई।

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