'ऐ ज़िन्दगी, गौर से देख इन आंखों में'
ऐ ज़िन्दगी, गौर से देख इन आंखों में, इनमें कहीं डर की परछाई दिकती भी है क्या? अंगारों सी ताप्ती तुमसे, भिड़ जाऊ मैं, एक दिन तूफानी रात जैसी विचलित तुमसे लड़ लूं मैं, एक दिन तुम्हारी इन बेकाबू लेहेरों पे अपना छाप छोड़ दूं मैं, एक दिन अपने खामोशी से हज़ार बातें बोल दूं मैं, एक दिन ऐ ज़िन्दगी, गौर से देख इन आंखों में, इनमें कहीं डर की परछाई दिखती भी है क्या? मुश्किलों के उन काले बादलों पे रोशनी की लहर फैलादू मैं, एक दिन तुम्हारे अनगिनत चुनौतियों को चिथ कर दूं मैं, एक दिन मौकों पे ढलते सूरज को फिर से सवेरे में बदल दूं मैं, एक दिन मुर्झाए हुए उन हसी के फूलों को फिर से खिलने पे मजबूर कर्दू मैं, एक दिन ऐ ज़िन्दगी, गौर से देख इन आंखों में, इनमें कहीं डर की परछाई दिखती भी है क्या? बड़े बुज़ुर्ग कह गए कि डर्नेवाले कभी जीतते नहीं और हमने तो हारना कभी सीखा ही नहीं अरे कब तक हमको टोकर मारोगे, कभी ना कभी तो हमारे हुनर पहचानोगे ऐ ज़िन्दगी, गौर से देख इन आंखों में, इनमें कहीं डर की परछाई दिखती भी है क्या?